ध्यान : शिव प्रणीत, बुद्ध द्वारा विकसित श्वास-साधना विधि

हम जन्म के क्षण से मृत्यु के क्षण तक निरंतर श्वास लेते रहते हैं। इन दो बिंदुओं के बीच सब कुछ बदल जाता है, सब चीज बदल जाती है, कुछ भी बदले बिना नहीं रहता, लेकिन जन्म और मृत्यु के बीच श्वास—क्रिया अचल रहती है।

बच्चा जवान होगा, जवान का होगा। वह बीमार होगा, उसका शरीर रुग्ण और कुरूप होगा, सब कुछ बदल जाएगा। वह सुखी होगा, दुखी होगा, पीड़ा में होगा, सब कुछ बदलता रहेगा। लेकिन इन दो बिंदुओं के बीच आदमी श्वास भर सतत लेता रहेगा, चाहे और कुछ भी हो।

आप सुखी हो कि दुखी, जवान हो कि के, सफल कि असफल—जो भी हो, वह अप्रासंगिक है—लेकिन एक बात निश्चित है कि इन दो बिंदुओं के बीच श्वास लेते ही रहना है।

श्वास-क्रिया एक सतत प्रवाह है, उसमें अंतराल संभव नहीं है। अगर आप एक क्षण के लिए भी श्वास लेना भूल जाओ तो समाप्त हो जाओगे। यही कारण है कि श्वास लेने का जिम्मा आपका नहीं है, नहीं तो मुश्किल हो जाए। कोई एक क्षण को भी श्वास लेना भूल जाए तो फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता।

इसलिए यथार्थ में आप श्वास नहीं लेते हो, क्योंकि उसमें आपकी जरूरत नहीं है। गहरी नींद में हो और श्वास चल रही है। गहरी मूर्च्छा में हो और श्वास चल रही है। आप इसके लिए जरूरी नहीं हो। आपके भूमिका नहीं होने बावजूद श्वास-क्रिया जारी रहती है।

श्वसन आपके व्‍यक्‍तित्‍व का एक अचल तत्व है, यह पहली बात हुई। दूसरी बात कि वह जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक और आधारभूत है। श्वास के बिना जीवित नहीं रह सकते। इसलिए श्वास और जीवन पर्यायवाची हो गए हैं।
श्वास-क्रिया जीवन की यांत्रिकी है और जीवन गहरे रूप में उससे जुड़ा है। इसलिए भारत में उसे प्राण कहते हैं।
श्वास और जीवन दोनों के लिए हमने यह शब्द प्राण रखा है। प्राण का अर्थ है, जीवन-शक्ति, जीवंतता। आपका जीवन श्वास है।

तीसरी बात यह कि श्वास आपके और आपके शरीर के बीच सेतु है। सतत श्वास आपको आपके शरीर से जोड़ रही है, संबंधित कर रही है। श्वास न सिर्फ आपके और आपके शरीर के बीच सेतु है, बल्कि वह आपके और विश्वब्रह्माण्ड के बीच भी सेतु है। शरीर वह विश्व है जो आपके पास आया है, जो पास है। शरीर विश्व का ही अंग है। शरीर की हरेक चीज, हरेक कण, हरेक कोश विश्व का अंश है। यह विश्व के साथ निकटतम संबंध है।

श्वास सेतु है। अगर सेतु टूट जाए तो शरीर में नहीं रह सकोगे; किसी अज्ञात आयाम में चले जाओगे। तब समय और स्थान में भी नहीं पाए जाओगे। इसलिए श्वास आपके और देश-काल के बीच का सेतु है। श्वास इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।

तो अगर आप श्वास के साथ कुछ कर सको तो अचानक वर्तमान में लौट आओगे। अगर श्वास के साथ कुछ कर सको तो जीवन-स्रोत को उपलब्ध हो जाओगे। अगर श्वास के साथ कुछ कर सको तो समय और स्थान का अतिक्रमण कर जाओगे। अगर श्वास के साथ कुछ कर सको तो संसार में भी होओगे और उसके पार भी।

श्वास के दो बिंदु हैं, दो छोर हैं। एक छोर है जहां पर वह शरीर और विश्व को छूती है और दूसरा छोर है जहां वह तुम्हें और विश्वातीत को छूती है। और हम श्वास के एक ही हिस्से से परिचित हैं। जब वह विश्व में, शरीर में गति करती है, तभी हम उसे जानते हैं। लेकिन वह सदा ही शरीर से अशरीर में और अशरीर से शरीर में संक्रमण कर रही है। इस दूसरे बिंदु को हम नहीं जानते हैं।

अगर आप दूसरे बिंदु को, जो सेतु का दूसरा ध्रुव है, जान जाओ तो एकाएक रूपांतरित होकर एक दूसरे ही आयाम में प्रवेश कर जाओगे।

लेकिन याद रखो, शिव जो कहने जा रहे हैं वह योग नहीं है; वह तंत्र है।

योग भी श्वास पर काम करता है, लेकिन योग और तंत्र के काम में बुनियादी फर्क है। योग श्वास—किया को व्यवस्थित करने की चेष्टा करता है। अगर अपनी श्वास को व्यवस्था दो तो स्वास्थ्य सुधर जाएगा। अगर
श्वास-क्रिया को व्यवस्थित करो, उसके रहस्यों को समझो, तो स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन मिलेगा। ज्यादा बली, ज्यादा ओजस्वी, ज्यादा जीवंत, ज्यादा युवा और ज्यादा ताजा हो जाओगे।
लेकिन तंत्र को उससे कुछ लेना-देना नहीं है।

तंत्र श्वास की व्यवस्था की चिंता नहीं लेता, भीतर की ओर मुड़ने के लिए वह श्वास—क्रिया का उपयोग भर करता है। तंत्र में साधक को किसी विशेष ढंग की श्वास का अभ्यास नहीं करना है, कोई विशेष प्राणायाम नहीं साधना है, प्राण को लयबद्ध नहीं बनाना है; बस, उसके कुछ विशेष बिंदुओं के प्रति बोधपूर्ण रहना है।

श्वास-प्रश्वास के कुछ बिंदु हैं जिन्हें हम नहीं जानते। हम सदा श्वास लेते रहे हैं, लेते रहेंगे, हम श्वास के साथ जन्मते हैं, श्वास के साथ मरते हैं। लेकिन हमें उसके कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का बोध नहीं है। और यह हैरानी की बात है। मनुष्य अंतरिक्ष की गहराइयों में उतर रहा है, खोज कर रहा है। वह चांद. पर पहुंच रहा है, वह पृथ्वी से निकलकर सुदूर अंतरिक्ष में पहुंचने की चेष्टा कर रहा है। लेकिन वह अपने जीवन के इस निकटतम अंग को नहीं समझ सका है।

श्वास के कुछ बिंदु हैं जिन्हें आपने कभी देखा ही नहीं। वे बिंदु द्वार हैं, आपके निकटतम द्वार, जिनसे होकर एक दूसरे ही संसार में, एक दूसरे ही अस्तित्व में, एक दूसरी ही चेतना में प्रवेश कर सकते हो। लेकिन वे बिंदु बहुत सूक्ष्म हैं। चांद का निरीक्षण बहुत कठिन नहीं है। चांद पर पहुंचना भी बहुत कठिन नहीं है। वह एक स्थूल यात्रा है। यंत्रीकरण हो, प्राविधि हो, ढेर सी सूचनाएं हों, तो चांद पर पहुंच जाओगे।

श्वास-क्रिया आपकी निकटतम चीज है। जो चीज जितनी ही निकट होती है उसे देखना उतना ही कठिन हो जाता है। जो चीज जितनी निकट हो वह उतनी ही कठिन मालूम देती है, जो चीज जितनी ही प्रकट हो उतनी ही कठिन लगती है। श्वास इतनी करीब है कि आपके और उसके बीच स्थान ही नहीं रहता। या इतना अल्प स्थान है कि उसे देखने के लिए बहुत सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। तभी उन बिंदुओं के प्रति बोधपूर्ण हो सकोगे तो पूर्णत्व मिल जायेगा।

पृथ्वी की प्रथम और सर्वाधिक सफल ध्यान विधि :

शिव शिवा के प्रश्न के उत्तर में कहते हैं :

“हे देवी यह अनुभव दो श्वासों के बीच घटित हो सकता है। श्वास के भीतर आने के पश्चात और बाहर लौटने के ठीक पूर्व-श्रेयस है कल्याण है।”

यह अनुभव दो श्वासों के बीच घटित हो सकता है। जब श्वास भीतर अथवा नीचे को आती है उसके बाद, और फिर श्वास के बाहर लौटने के ठीक पूर्व-श्रेयस है। इन दो बिंदुओं के बीच होशपूर्ण होने से घटना घटती है।

जब श्वास भीतर आए तो उसका निरीक्षण करो। उसके फिर बाहर या ऊपर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण के लिए, या क्षण के हजारवें भाग के लिए श्वास बंद हो जाती है। श्वास भीतर आती है और वहां एक बिंदु है जहा वह ठहर जाती है। फिर श्वास बाहर जाती है।

जब श्वास बाहर जाती है तो फिर वहां भी एक क्षण के लिए या क्षणांश के लिए ठहर जाती है। फिर वह भीतर के लिए लौटती है।

श्वास के भीतर या बाहर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण है जब श्वास नहीं लेते हो। उसी क्षण में घटना घटनी संभव है; क्योंकि जब श्वास नहीं लेते हो तो संसार में नहीं होते हो। समझ लो कि जब श्वास नहीं लेते हो तब मृत हो; तो हो, लेकिन मृत। लेकिन यह क्षण इतना छोटा है कि उसे कभी देख नहीं पाते।

तंत्र के लिए प्रत्येक बहिर्गामी श्वास मृत्यु है और प्रत्येक नई श्वास पुनर्जन्म है। भीतर आने वाली श्वास’ पुनर्जन्म है; बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु है। बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु का पर्याय है, अंदर आने वाली जीवन का।

इसलिए प्रत्येक श्वास के साथ आप मरते हो और फिर जन्म लेते हो। दोनों के बीच का अंतराल बहुत क्षणिक है, लेकिन पैनी दृष्टि, शुद्ध निरीक्षण अवधान हो तो अनुभव घट सकता है। यदि उस अंतराल को अनुभव कर सको तो शिव कहते हैं कि श्रेयस उपलब्ध है। तब और किसी चीज की जरूरत नहीं है।

तब आप आप्तकाम हो गए। जान लिया; घटना घट गई। श्वास को प्रशिक्षित नहीं करना है। वह जैसी है उसे वैसी ही रहने दो। सत्य को, उसको जानना है जिसका न जन्म है न मरण, उस शाश्वत को जानना है जो सदा है।

आप बाहर जाती श्वास को जान सकते हो, भीतर आती श्वास को भी जान सकते हो, लेकिन दोनों के अंतराल को बेहोशी me कभी नहीं जान पाते। प्रयोग करो और तब उस बिंदु को पा लोगे। उसे अवश्य पा सकते हो. वह है। आपको आपकी संरचना में कुछ जोड़ना नहीं है, वह है ही। सब कुछ है, सिर्फ बोध नहीं है।

कैसे प्रयोग करें ?

पहले भीतर आने वाली श्वास के प्रति होशपूर्ण बनो। उसे देखो। सब कुछ भूल जाओ और आने वाली श्वास को, उसके यात्रा—पथ को देखो। जब श्वास नासापुटों को स्पर्श करे तो उसको महसूस करो। श्वास को गति करने दो और पूरी सजगता से उसके साथ यात्रा करो। श्वास के साथ ठीक कदम से कदम मिलाकर नीचे उतरो, न आगे जाओ और न पीछे पड़ो। उसका साथ न छूटे, बिलकुल साथ—साथ चलो।

स्मरण रहे, न आगे जाना है और न छाया की तरह पीछे चलना है—समांतर चलो, युगपत। श्वास और सजगता को एक हो जाने दो। श्वास नीचे जाती है तो आप भी नीचे जाओ। तभी उस बिंदु को पा सकते हो जो दो श्वासों के बीच में है। यह इतना भी आसान नहीं है। श्वास के साथ अंदर जाओ, श्वास के साथ बाहर जाओ।

बुद्ध ने इसी विधि का प्रयोग विशेष रूप से किया, इसलिए यह बौद्धविधि बन गई। बौद्ध शब्दावली में इसे अनापानसती योग कहते हैं। स्वयं बुद्ध की’ आत्मोपलब्धि इस विधि पर ही आधारित थी। संसार के सभी धर्म, संसार के सभी द्रष्टा किसी न किसी विधि के जरिए मंजिल पर पहुंचे हैं। यह पहली विधि बौद्धविधि है। दुनिया इसे बौद्धविधि “विपस्यना” के रूप में जानती है, क्योंकि बुद्ध इसके द्वारा ही निर्वाण को उपलब्ध हुए थे।

बुद्ध ने कहा है अपनी श्वास—प्रश्वास के प्रति सजग रहो, अंदर आती—जाती श्वास के प्रति होश रखो। बुद्ध अंतराल की चर्चा नहीं करते, क्योंकि उसकी जरूरत नहीं है। बुद्ध ने सोचा और समझा कि अगर आप अंतराल की, दो श्वासों के बीच के विराम की फिक्र करने लगे, तो उससे आपकी सजगता खंडित होगी। इसलिए उन्होंने सिर्फ यह कहा कि होश रखो; जब श्वास भीतर आए तो आप भी उसके साथ भीतर आओ और जब श्वास बाहर जाए तो आप भी उसके साथ ही बाहर जाओ। इतना ही करो, श्वास के साथ—साथ आप भी भीतर—बाहर चलते रहो।

विधि के दूसरे हिस्से के संबंध में बुद्ध कुछ भी नहीं कहते हैं। इसका कारण है। कारण यह है कि बुद्ध बहुत साधारण लोगों से, सीधे—सादे लोगों से बोल रहे थे। वे उनसे अंतराल की बात करते तो उससे लोगों में अंतराल को पाने की एक अलग कामना निर्मित हो जाती। यह अंतराल को पाने की कामना बोध में बाधा बन जाती।

अगर अंतराल को पाना चाहते हो तो आगे बढ़ जाओगे, श्वास भीतर आती रहेगी और उसके आगे निकल जाओगे। क्योंकि आपकी दृष्टि अंतराल पर है जो भविष्य में है। बुद्ध कभी इसकी चर्चा नहीं करते; इस हिसाब से बुद्ध की विधि आधी है।

लेकिन दूसरा हिस्सा अपने आप ही चला आता है। अगर श्वास के प्रति सजगता का, बोध का अभ्यास करते गए तो एक दिन अनजाने ही अंतराल को पा जाओगे। क्योंकि जैसे—जैसे बोध तीव्र, गहरा और सघन होगा, जैसे—जैसे बोध स्पष्ट आकार लेगा—जब सारा संसार भूल जाएगा, बस श्वास का आना—जाना ही एकमात्र बोध रह जाएगा—तब अचानक उस अंतराल को अनुभव करोगे जिसमें श्वास नहीं है।

अगर आप सूक्ष्मता से श्वास—प्रश्वास के साथ यात्रा कर रहे हो तो उस स्थिति के प्रति अबोध कैसे रह सकते हो जहां श्वास नहीं है। वह क्षण आ ही जाएगा जब महसूस करोगे कि अब श्वास न जाती है, न आती है। श्वास—क्रिया बिलकुल ठहर गई है। और उसी ठहराव में श्रेयस का वास है।

यह एक विधि लाखों—करोड़ों लोगों के लिए पर्याप्त है। सदियों तक समूचा एशिया इस एक विधि के साथ जीया और उसका प्रयोग करता रहा। तिब्बत, चीन, जापान, बर्मा, श्याम, श्रीलंका— भारत को छोड्कर समस्त एशिया सदियों तक इस एक विधि का उपयोग करता रहा। इस एक विधि के द्वारा हजारों—हजारों व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हुए।

यह पहली ध्यान विधि है। दुर्भाग्य की बात कि चूंकि यह विधि बुद्ध के नाम से संबद्ध हो गई, इसलिए हिंदू इस विधि से बचने की चेष्टा में लगे रहे। क्योंकि यह बौद्धविधि की तरह बहुत प्रसिद्ध हुई, हिंदू इसे बिलकुल भूल ही बैठे। इतना ही नहीं, उन्होंने इसकी अवहेलना की।

शिव ने सबसे पहले इस विधि का उल्लेख किया, अनेक बौद्धों ने इस विज्ञान भैरव तंत्र के बौद्ध ग्रंथ होने का दावा किया है। इसलिए हिन्दू इसे हिंदू ग्रंथ नहीं मानते।

यह न हिंदू है न बौद्ध, और विधि मात्र विधि है। बुद्ध ने इसका उपयोग किया, लेकिन यह उपयोग के लिए मौजूद ही थी। और इस विधि के चलते बुद्ध बुद्ध हुए। विधि बुद्ध से भी पहले थी, वह मौजूद ही थी।

इसको प्रयोग में लाओ। यह सरलतम विधियों में से है—अन्य विधियों की तुलना में; मैं यह नहीं कहता कि यह विधि आपके लिए सरल है। अन्य विधियां अधिक कठिन होंगी। यही कारण है कि पहली विधि की तरह इसका उल्लेख हुआ है।

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